कुछ सुकून के दरिया बहने दो..
ना हो कागज़ की कमजोर कशती..
ना मझधार की उलझन..
बस..एक दीर्घ सांस
और बन्द आंखे..
उतर गई जो भीतर..
अपनी ही खोज..
होंठों पर अनुभूति
का स्मित हास्य..
और “ओम” का उच्चारण..
मानो शरीर के दोनों
ओर पंख लग गए थे..
रोम में शाश्वत बस गए थे..
बाकी सब कुछ पल को भूल गई..
“कामिनी”इंद्रधनुष पर झूल गयी..
कामिनी खन्ना